शनिवार, 10 दिसंबर 2022

हम बिहार के लड़के


1) वैसे तो निज नाम बताना 
हमको व्यर्थ सा लगता है
मेरे अंदर का अर्जून 
शौर्य को सर्वज्ञ समझता है

2) हम बिहार के लड़के हैं
हमने अभावों को जीता है
खुले आसमान के नीचे हमने
 क ख ग घ सीखा है

3) धैर्य न खोना सखा अगर
नैराश्य की स्याही बनी रहे
लक्ष्य पाने तक मित्र मेरे
लगन की ज्योति जली रहे

4) देखो उनका जीवठ भी
योद्धा जो रण में बड़े हुए
कुंद करने को उनकी बुद्धि
लोग कैसे खड़े हुए

5) पद वालों की दृष्टि में 
हम तुम बहुत मामूली है
पर वे ये ना भूले की 
वे भी जनतंत्र की धूली है

6) फ़र्ज़ तो उनका था कि
व्यवस्था ठीक चलाते वे
देश चलाने की खातिर
प्रतिभा चुन कर लाते वे

7) चोखा खिचड़ी खाकर भी
हम मेरिट तो लाते हैं
डिग्री देने वाले सेशन
अक्सर लेट हो जाते हैं

8) ढिल्लम सिलल्म में ना जाने
जवानी कैसे गुम हुई
भविष्य हमारे इन लोगों के
दस्तखत की कुटुंब हुई

9) पटना पढ़ने आया लड़का
जिन सपनों को जीता है
वे क्या जाने तंगहाली में
संघर्षों को कैसे पीता है

10)  करें क्या मेरिटधारी लड़का
गर टैलेंट का मान न हो
चाणक्य जन्मेगी कैसे धरती
गर वक्त पर इम्तिहान न हो


सदानन्द कुमार
समस्तीपुर बिहार


शनिवार, 12 नवंबर 2022

पूस प्रवास भाग 05 और 06 । हिन्दी कहानियां ।

" पूस प्रवास " भाग- 05
( सफरनामा )


गूची जी के मूल प्रश्नों का निवारण तो लगभग हो चुका था, पर इस सुंदर  नवयुवती से लगातार संवाद की लालसा गूची जी के मन से ना जाती थी, सो रह रह कर एक छोटू मोटू गोलू लोलू सा सवाल नवयुवती की तरफ उछाल देते थे । अब तक तो नवयुवती सामान्य शिष्टाचार और सीट पर टिके रहने की मजबूरी में धैर्य से काम ले रही थी पर अब उसके चंद्रमुखी चेहरे पर खीझ की रेखा लम्बी होती जा रही थी । इस बार भी बड़ी उत्सुकता से गूची जी ने तरूणी के तरफ एक बेहद व्यवहारिक प्रशन फेंका- 
" आपने अभी तक अपना नाम नहीं बताया । "
इस बार थोड़ी खीझ के साथ तरूणी ने गूची को देखा, लड़की के देखने के तेवर से गूची को ऐसा आभास हुआ मानों यह प्रशन पूछ कर उसने इस बार लक्ष्मण रेखा लांघ दी है ।
थोड़ी देर तो लड़की बिल्कुल ही मौन रहीं, मानों अपने क्रोध रूपी विष को कंठ में ही धारण करने की प्रेक्टिस कर रही हो और लड़की को ऐसे मौन हुए देखकर गूची जी ने सोचा कि कहीं ये तूफां से पहले का सन्नाटा तो नहीं पर फिर लड़की ने मुख पर एक उदार कृत्रिम मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि- " जी मेरा नाम कल्लू है " 
"अरेर , आप जैसी सुंदर और माडर्न लड़की का नाम कल्लू !!  ये कैसा नाम है, ? " गूची ने बिना किसी विस्मय के साधारण भाव से ये बात कही क्योंकी गूची समझ रहा था कि लड़की ने खीझ कर ये नाम बताया है । इधर लड़की के सब्र का बांध गूची के सवालों के थपेड़े से बस टूटने ही वाला था शायद इसलिए लड़की ने अपने बैग से कुछ दालमूट और चिप्स के पैकेट निकाले और एक पैकेट गूची को भी आॅफर किया । गूची को लगा शायद लड़की सवालों से मुक्ति चाहती है इसलिए मुंह बंद करवाने को चिप्स आॅफर कर रही है, शुरूवाती ना नुकुर के बाद गूची जी ने झेंप कर चिप्स का वो पैकेट ले ही लिया और खाने लगे । गूची को चिप्स खाता देख लड़की के चेहरे पर सुकून के भाव उभरे, गूची को लगा शायद सच में लड़की मेरे सवालों से बोर चुकी थी, फिर गूची ने अपने स्वाभिमान की खातिर मन ही मन तय किया कि अब वो लड़की से कोई बातचीत नहीं करेगा और चुपचाप सो रहेगा ।,,
क्रमशः,,
" पूस प्रवास " भाग- 06
( सफरनामा )
यूं तो कहते हैं कि इंसान अपने संवेदनाओं के कारण ही इंसान हो पाता है, इन संवेदनाओं में प्रेम सबसे ताकतवर संवेदना होती है । इंसान जब किसी मनोभाव के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है तो उसे किसी दूसरे मनोभाव से प्रतिस्थापित कर लेता है जैसे यदि किसी के प्रति मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाए और यह ईर्ष्या विसराने योग्य ना हो तो धीरे धीरे मन उस ईर्ष्या को द्वेष में बदल लेता है, ठीक वैसे ही जब प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम में ना मिले तो मानव मन को अपना स्वाभिमान याद आता है। इस लड़की के ऐसे तंज भरे लहजे ने भी गूची जी के स्वाभिमान को जागृत कर दिया था, सो संवाद की लाख लालसा होते हुए भी उन्होंने इस लड़की से अब बात ना करने की लगभग कसम खा ली थी, हां लेकिन इतना शिष्टाचार जरूर बनाए हुए थे कि लड़की को बैठने में कोई तकलीफ़ ना हो, सीट के बिल्कुल कोने में बैठी हुई लड़की को पूरी सीट दे देने की प्रबल इच्छा हो रही थी परन्तु अपना स्वाभिमान बार बार आड़े आ जा रहा था, किसी तरह गूची जी अपना हाथ पांव समेटे बर्थ के दूसरे कोने में दुबके हुए थे, कुछ कुछ ये ठंड का भी असर था, ज्यो ज्यो ट्रेन बिहार की तरफ बढ़ती चली जा रही थी ठंड भी पूरी तरह जमीं पर उतर आने को आतुर हो रहा था, कोहरे ने तो वैसे भी ट्रेन के पहियों को भारी कर रखा था, घने कोहरे में बमुश्किल ही आगे का कुछ हिस्सा दिख पाता था, जल्द ही इस सफर ने हसीं शाम के बाद शबनमी रात में प्रवेश किया, वैसे तो ट्रेन के सफर में सो जाना गूची जी के यात्रा कौशल पर प्रश्नचिन्ह के माफिक था, पर पता नहीं कैसे उकडू होकर लेटे हुए होने के बावजूद इस बार उनकी आंख लग गयी थी । आंखें खुली तो कैसा विस्मयकारी परिदृश्य देखा गूची जी ने, लगभग चित्कार भरे लहजे में बगल के बुजुर्ग सहयात्री दंपति से पूछा- " अरेरर, यह लड़की कहां गई, " इतने आत्मविश्वास के साथ गूची ने उस लड़की की खोज लेनी चाही मानों उस लड़की की पूरी जिम्मेदारी परमात्मा ने गूची को ही सौंपी थी । बगल के वृद्ध सज्जन ने कहा - " कहां गई मतलब ? वो तो तुम्हारे साथ थी ना, क्या बिना बताए उतर गई? " 
 गूची ने किसी लूटे पिटे सम्राट के भाव लेते हुए पूछा - " मेरे साथ !! नहीं तो !! मैंने तो बस उसे यहां बैठने भर की जगह दी थी ?? पता नहीं ?? कौन से स्टेशन पर उतर गई ? " 
बुजुर्ग ने मुख मंडल की भाव भंगिमा बिगाड़ते हूए कहा- "अब तुम लोग इतने सहज भाव के साथ चना चबेना का आदान-प्रदान कर रहे थे कि हमें तो लगा कि तुम दोनों साथ में ही हो, जब वो जमुई स्टेशन के पास जाने को हुई तो हमें तो थोड़ा अचरज हुआ पर कुछ बोलना हमने उचित नहीं समझा ।" 
बुजुर्ग की बातें गूची जी के मन मस्तिष्क पर ऐसा आघात कर रही थी मानो गूची जी ने किसी जीती हुई लाॅटरी का टिकट खो दिया हो । 
क्रमशः,,,

सदानन्द कुमार

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सोमवार, 7 नवंबर 2022

पूस प्रवास भाग 3 और भाग 4

" पूस प्रवास " भाग-03

 ( सफरनामा )
यूं तो हम भारतीय लोगों के लिए रेल का सफर महज दो स्थानों के बीच की दूरी तय करने भर की बात नहीं होती । हमारे लिए रेल की यात्रा हर बार एक संस्मरण की जननी होती है, लेकिन जब मन किसी गंभीर चिंतन मनन में लीन हो तब हर सुखद परिस्थिति आनन्द दे ये जरूरी नहीं । हमारे गूची भाई भी किसी तरह रेल मे सवार हो तो गए लेकिन उनका मन अब भी नौकरी और जीवन में ज्ञान के असली निहितार्थ के बीच में झूल रहा था । किसी तरह मन को तात्कालिक विश्राम देकर गूची जी ठसाठस भरें कोच में धीरे धीरे कछुए के माफिक अपना दो सूटकेस लिए अपने सीट के तरफ बढ़े, अपने सीट पर आकर गूची जी ने जैसे ही अपना सूटकेस अपने बर्थ पर टिकाया कि पास खड़ी कोमल काया , आधुनिक मेकअप से सुसज्जित और मनहर ऐटिट्यूड वाली नवयुवती धीरे से गूची जी के सीट पर कोने में सरक कर बैठ गई, वैसे तो अगर इस कोमल काया लड़की के जगह कोई हालात का मारा पुरुष गूची के सीट पर बैठता तो गूची जी इसे अपने अधिकारों का हनन और सीट पर नाजायज अतिक्रमण समझते पर बात यहां कोमल काया मृगनयनी की थी तो मजाल है कि गूची जी के मुख से आपत्ति का आ भी निकल जाए । गूची तो मन ही मन सोच रहे थे कि ससुरा जीवन इतना भी नीरस नहीं जितना वो अभी समझ रहा था, बैठने को तो यह लड़की बगल की सीट पर भी बैठ सकती थी पर मेरे ही सानिध्य में बैठना शायद किसी सुखद परिणीती की सूचक हैं । 
बड़ी ही झिझक से गूची जी ने दांत निपोरे एक बड़ा विनम्र सवाल इस नवयौवना की तरफ दागा- " जी, वो आपकी सीट कौन सी है ? " 
तरूणी ने भी बड़ी आत्मीयता के साथ कहा कि " जी फिलहाल तो मेरी सीट कन्फर्म नहीं है, वेटिंग है, आप बहुत सभ्य और सौम्य लगे इसलिए मैं यहां बैठने का साहस कर पाई । आपको अगर तकलीफ़ ना हो तो क्या मैं यहां थोड़ी देर बैठ जाऊं, टीटी के आते ही मैं कुछ एरेजमेंट कर लूंगी । " 
गूची जी ने इस कन्या के मुख से संपादिक वाक्यों में बस इतना ही सूना कि "आप मुझे बहुत सभ्य और सौम्य लगें, बस इतना ही सूना कि गूची जी के मन में इतना बड़ा लड्डू फूटा कि उसके धमाके में गूची जी ने आगे कुछ सूना ही नहीं, बस भाव विभोर होकर मुण्डी डोलाते रह गए ।
क्रमशः,,,

                      " पूस प्रवास " भाग-04
                              ( सफरनामा )
यूं तो स्त्री पुरुष में आकर्षण के कई आयाम हो सकतें हैं परंतु मानव गुण धर्म पर पीएचडी ढोक चुके स्काॅलरस का ऐसा मानना है कि हास्य विनोद में पारंगत पुरुष, स्त्रियों को, और रूपवती स्त्रियां, पुरुषों को स्वाभिक रूप से आकर्षित करते हैं । हमारे गूची जी भी ऐसे ही रूपवती सहयात्री के सहयोग की कामना करते हुए सफ़र को एन्ज्वाय करते चले जा रहे थे परन्तु वार्तालाप शुरू करने में गूची जी सहजता महसूस नहीं कर पा रहे थे । शायद गूची जी कि इसी असहजता को महसूस करते हुए  नवयौवना ने स्वयं ही संवाद शुरू किया और बड़े ही सौम्य लहज़े में पूछा-" आपने बताया नहीं कि आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं अगर मैं यहां थोड़ी देर बैठ जाऊं ।"
गूची जी लगभग घिघयाते हुए बोले-" नहीं नहीं मुझे कोई तकलीफ़ नहीं, आप आराम से बैठे ।" 
इतना कहते हुए गूची जी ने एक प्रशन भी साथ साथ चिपका दिया " क्या आप अकेले सफर कर रही हो ।"
अब लड़की ने अपनी मंद मुस्कान के साथ संवाद में मिश्री घोलते हुए कहा- " यस, आई एम टोटली एलोन, बट ईट्स फाईन । " 
गूची ने मानो ऐसी ब्युटीफुल ईग्लिश जीवन में पहली बार देखा था अअ , मेरा मतलब सुना था😜 पर मदहोशी को कंन्ट्रोल करते हुए बोले -" यस, नो ईश्शू , पर आप अकेली क्यूं , वो भी वेटिंग टिकट के साथ, क्या परेशानी नहीं होगी? "
अब तक लड़की गूची जी के वजन को तौल चुकी थी इसलिए तपाक से बोली " जी  आप जैसे सभ्य लोग के होते हुए , उतनी परेशानी नहीं । वैसे भी मैं यहां कलकत्ते से इंजीनियरिंग कर रही हूं, महीने दो महीने में एक बार घर जाती ही रहतीं हूं, हर बार कन्फर्म टिकट तो नहीं मिलता, मुझे आदत है, वैसे भी मात्र छः सात घंटे का ही सफर है । "
शायद लड़की ने एक बार में इतना सब इसलिए कह बताया ताकि गूची जी के तरफ से अब कोई अवांछित प्रशन ना उठे ,,,
क्रमशः,,,
सदानन्द कुमार
सदानन्द कुमार
Instagram id: @gyani_sada

गुरुवार, 9 जून 2022

Short Hindi stories || Best Hindi novels || Sad love story in Hindi || पूस प्रवास भाग 1 और 2 ||

Short Hindi stories || 
Best Hindi novels || Sad love story in Hindi 

 नमस्कार दोस्तों,
Short Hindi stories || 
Best Hindi novels || Sad love story in Hindi " पूस प्रवास " भाग-01 
( सफरनामा ) के पहले भाग में आप लोगों का स्वागत है ।

पूस प्रवास, यह शीर्षक अपने आप में बहुत अनूठा मालूम होता है मुझे, बस इसलिए मैंने इस कहानी का यह शीर्षक रखा है, यदि हम और आप प्रेमचंद जैसे महान लेखक के समकालीन होते तो बहुत सहजता से अनुमान लगा लेते कि कहानी की पटकथा क्या होगी, लेकिन हमलोग तो 4G परिवेश में फुदकने वाले खरगोश है, हमारी मां हिन्दी जब अपने पूरे सौन्दर्य और श्रृंगार के साथ जब हमारे सामने आ जाती है तो हम भाषायी विद्वान होते हुए भी मां हिन्दी को पढ़ कर समझ नहीं पाते, ठीक वैसे ही जैसे हमें "पूस प्रवास" का मतलब समझ नहीं आया । 
खैर, ढ़ेर चौधरी बनने से अच्छा है कि मैं  यह बता देता हूं कि मैंने इस कहानी का शीर्षक "पूस प्रवास" क्यूं रखा है । मेरी ये कहानी पूस के महीने में प्रवास करते एक नौजवान लड़के गगन प्रताप उर्फ " गूची " की कहानी है, जिसने अभी अभी डिग्री पास करते ही ये जान लिया है कि जिंदगी में अपना मुकाम और अपने मन में जीवठ पैदा करना किसी काॅलेज में नहीं सिखाया जाता । डिग्री वाले लोग अवसर के इंतेज़ार में रहते हैं पर जीवठ के धनी लोग अपने अवसर का निर्माण खुद करते हैं । इतने घनघोर कल्याणकारी मोटीवेशनल कोट्स को अपने लहू में जीने वाला अपना गूची वैसे तो बहुत सयाना है पर उम्र का तकाजा है कि बकलोली और सिल्ली मिस्टेक्स करने की आदत अभी छूटी नहीं है,
Short Hindi stories ||  Best Hindi novels || Sad love story in Hindi

" पूस प्रवास " भाग-02
( सफरनामा )
वैसे तो टटका टटका ग्रेजुएट हुए गूची को दुनियादारी में अपने अनुभवहीन होने का मलाल तो जन्म से ही था, पर इस बात की कसक ज्यादा थी कि ना चाहते हुए भी उससे ना जाने कैसे बलंडर गलतियां हो जाती हैं, वो सब तो फिर भी ठीक था लेकिन गूची को इस बात की सबसे ज़्यादा आपत्ति थी कि दुनिया उसके सरल स्वभाव को बकलोली समझती है । खैर, जो भी हो पर अपने गूची जी पठन पाठन में काफी तेजस्वी थे, इसलिए कलकत्ते के एक MNC की भर्ती प्रक्रिया में सफल हो कर लौट रहे थे । वैसे तो यह दुनिया अब गूची जैसे निरीह प्राणियों के रहने लायक नहीं है लेकिन कलकत्ता फिर भी कुछ ठीक है, ऐसा स्वयं गूची जी का मानना था, बकौल गूची जी, कलकत्ता में माछ भात से लेकर मूढ़ी भात खाने वाले सबों का गुजारा संभव है । चूंकि गूची जी अपने एकेडमिक में काफ़ी अच्छे छात्र रहे थे, इसलिए व्यक्तित्व निर्माण में पढ़ाई-लिखाई का महत्व समझते थे, पर काॅलेज खत्म कर लेने के बाद जीवन में कुछ कुछ निरर्थकता का भाव आ गया था, ऐसा लगने लगा था मानो जवानी की आहुति देकर जो डिग्रियां प्राप्त की है उनका तो प्रयोजन बस इतना भर था कि किसी तरह एक नौकरी लग जाए । अब नौकरी भी सुनिश्चित ही थी पर गूची जी का कलेजा यह सोच सोच कर हलकान हुए जा रहा था कि जीवन क्या सच में इतना निरस है ? पहले स्कूल फिर काॅलेज फिर नौकरी , ऐसे में तो एक आम इंसान आध्यात्म, दर्शन, नीति इत्यादि और महापुरुषों के दिए उपदेशों और ज्ञान की बातों से बिल्कुल अलग अलग ही रह जाएगा, ऐसे में तो एक आम इंसान ज्ञानार्जन करने से बिल्कुल ही चूक जाएगा । ऐसे कई अंतर्द्वंदों से घिरा हुआ गूची हावड़ा स्टेशन पर बैठा अपने आत्म अवलोकन में इतना विलीन हो चुका था कि उसे आभास ही ना हुआ कि उसकी ट्रेन अपने निर्धारित प्लेटफार्म पर खड़ी हो चुकी है और बस रवानगी को तैयार है, जैसे तैसे आखिरी सीटी से पहले गूची भागता हुआ अपने कोच में सवार हो पाया, नौकरी मिलने की जो खुशी उसे पहले अंदर तक गुदगुदाए दे रही थी वो खुशी अब गुची के मन में विचलन के रूप में बदल रही थी ।
क्रमशः,,,
सदानन्द कुमार

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रविवार, 5 जून 2022

शाम की धूप

हर मौसम में तुम्हारा एक ख़त मिला मुझे । मई जून कि गर्म शाम, जब इस बड़े से लाईब्रेरी के रौशनदानों से शाम चार बजे के बाद कि धूप आती है और उस धूप कि किरणों में उड़ते हुए धूल कण चमक रहे होते हैं, ठीक उसी वक़्त डाकिया अपनी साइकिल की घंटी बजाता हुआ आया और तुम्हारा पत्र दे गया था । वैसे तो इस लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन की नौकरी करते हुए कभी कभी भयानक एकाकीपन महसूस होता है, मानों किसी बड़े अंधेरे भवन में बंद एक निरीह प्राणी । लाइब्रेरी मानों किताबों का समंदर पर इस समंदर में पतवार या कश्ती खेने वाला कोई नहीं, शायद अब युवाओं को लाईब्रेरी याद नहीं , इसलिए शायद अब यहां एक दो विद्यार्थियों के अलावा कोई नहीं आता, यहां बस आती है तो शाम चार बजे के बाद वाली धूप । उस रोज तुम्हारी चिट्ठी मिलने से उस रोज का मौसम, वो वक़्त मेरे ज़हन में छप चुका है और आज भी इस मूसलाधार बारिश में डाकिया और तुम्हारी चिट्ठी दोनों आए, डाकिया और बारिश दोनों तो जा चुके हैं अभी, और मैं लाइब्रेरी की भींगी हुई खिड़कियों और जंगलों पर लटके हुए इन बूंदों को देखकर यही सोचता हूं कि शायद इस भींगी खिड़कियों की तरह मेरा मन भी भींग जाए जैसे ही मैं तुम्हारी चिट्ठी खोलूं, इसलिए कहता हूं कि हर मौसम में तुम्हारा ख़त मिला मुझे या यूं कहूं कि तुम्हारे हर ख़त में एक मौसम मिला मुझे ।,,
सदानन्द कुमार
समस्तीपुर बिहार

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