Short Hindi stories || Best Hindi novels || Sad love story in Hindi || पूस प्रवास भाग 1 और 2 ||

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Best Hindi novels || Sad love story in Hindi 

 नमस्कार दोस्तों,
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Best Hindi novels || Sad love story in Hindi " पूस प्रवास " भाग-01 
( सफरनामा ) के पहले भाग में आप लोगों का स्वागत है ।

पूस प्रवास, यह शीर्षक अपने आप में बहुत अनूठा मालूम होता है मुझे, बस इसलिए मैंने इस कहानी का यह शीर्षक रखा है, यदि हम और आप प्रेमचंद जैसे महान लेखक के समकालीन होते तो बहुत सहजता से अनुमान लगा लेते कि कहानी की पटकथा क्या होगी, लेकिन हमलोग तो 4G परिवेश में फुदकने वाले खरगोश है, हमारी मां हिन्दी जब अपने पूरे सौन्दर्य और श्रृंगार के साथ जब हमारे सामने आ जाती है तो हम भाषायी विद्वान होते हुए भी मां हिन्दी को पढ़ कर समझ नहीं पाते, ठीक वैसे ही जैसे हमें "पूस प्रवास" का मतलब समझ नहीं आया । 
खैर, ढ़ेर चौधरी बनने से अच्छा है कि मैं  यह बता देता हूं कि मैंने इस कहानी का शीर्षक "पूस प्रवास" क्यूं रखा है । मेरी ये कहानी पूस के महीने में प्रवास करते एक नौजवान लड़के गगन प्रताप उर्फ " गूची " की कहानी है, जिसने अभी अभी डिग्री पास करते ही ये जान लिया है कि जिंदगी में अपना मुकाम और अपने मन में जीवठ पैदा करना किसी काॅलेज में नहीं सिखाया जाता । डिग्री वाले लोग अवसर के इंतेज़ार में रहते हैं पर जीवठ के धनी लोग अपने अवसर का निर्माण खुद करते हैं । इतने घनघोर कल्याणकारी मोटीवेशनल कोट्स को अपने लहू में जीने वाला अपना गूची वैसे तो बहुत सयाना है पर उम्र का तकाजा है कि बकलोली और सिल्ली मिस्टेक्स करने की आदत अभी छूटी नहीं है,
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" पूस प्रवास " भाग-02
( सफरनामा )
वैसे तो टटका टटका ग्रेजुएट हुए गूची को दुनियादारी में अपने अनुभवहीन होने का मलाल तो जन्म से ही था, पर इस बात की कसक ज्यादा थी कि ना चाहते हुए भी उससे ना जाने कैसे बलंडर गलतियां हो जाती हैं, वो सब तो फिर भी ठीक था लेकिन गूची को इस बात की सबसे ज़्यादा आपत्ति थी कि दुनिया उसके सरल स्वभाव को बकलोली समझती है । खैर, जो भी हो पर अपने गूची जी पठन पाठन में काफी तेजस्वी थे, इसलिए कलकत्ते के एक MNC की भर्ती प्रक्रिया में सफल हो कर लौट रहे थे । वैसे तो यह दुनिया अब गूची जैसे निरीह प्राणियों के रहने लायक नहीं है लेकिन कलकत्ता फिर भी कुछ ठीक है, ऐसा स्वयं गूची जी का मानना था, बकौल गूची जी, कलकत्ता में माछ भात से लेकर मूढ़ी भात खाने वाले सबों का गुजारा संभव है । चूंकि गूची जी अपने एकेडमिक में काफ़ी अच्छे छात्र रहे थे, इसलिए व्यक्तित्व निर्माण में पढ़ाई-लिखाई का महत्व समझते थे, पर काॅलेज खत्म कर लेने के बाद जीवन में कुछ कुछ निरर्थकता का भाव आ गया था, ऐसा लगने लगा था मानो जवानी की आहुति देकर जो डिग्रियां प्राप्त की है उनका तो प्रयोजन बस इतना भर था कि किसी तरह एक नौकरी लग जाए । अब नौकरी भी सुनिश्चित ही थी पर गूची जी का कलेजा यह सोच सोच कर हलकान हुए जा रहा था कि जीवन क्या सच में इतना निरस है ? पहले स्कूल फिर काॅलेज फिर नौकरी , ऐसे में तो एक आम इंसान आध्यात्म, दर्शन, नीति इत्यादि और महापुरुषों के दिए उपदेशों और ज्ञान की बातों से बिल्कुल अलग अलग ही रह जाएगा, ऐसे में तो एक आम इंसान ज्ञानार्जन करने से बिल्कुल ही चूक जाएगा । ऐसे कई अंतर्द्वंदों से घिरा हुआ गूची हावड़ा स्टेशन पर बैठा अपने आत्म अवलोकन में इतना विलीन हो चुका था कि उसे आभास ही ना हुआ कि उसकी ट्रेन अपने निर्धारित प्लेटफार्म पर खड़ी हो चुकी है और बस रवानगी को तैयार है, जैसे तैसे आखिरी सीटी से पहले गूची भागता हुआ अपने कोच में सवार हो पाया, नौकरी मिलने की जो खुशी उसे पहले अंदर तक गुदगुदाए दे रही थी वो खुशी अब गुची के मन में विचलन के रूप में बदल रही थी ।
क्रमशः,,,
सदानन्द कुमार

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