शाम की धूप

हर मौसम में तुम्हारा एक ख़त मिला मुझे । मई जून कि गर्म शाम, जब इस बड़े से लाईब्रेरी के रौशनदानों से शाम चार बजे के बाद कि धूप आती है और उस धूप कि किरणों में उड़ते हुए धूल कण चमक रहे होते हैं, ठीक उसी वक़्त डाकिया अपनी साइकिल की घंटी बजाता हुआ आया और तुम्हारा पत्र दे गया था । वैसे तो इस लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन की नौकरी करते हुए कभी कभी भयानक एकाकीपन महसूस होता है, मानों किसी बड़े अंधेरे भवन में बंद एक निरीह प्राणी । लाइब्रेरी मानों किताबों का समंदर पर इस समंदर में पतवार या कश्ती खेने वाला कोई नहीं, शायद अब युवाओं को लाईब्रेरी याद नहीं , इसलिए शायद अब यहां एक दो विद्यार्थियों के अलावा कोई नहीं आता, यहां बस आती है तो शाम चार बजे के बाद वाली धूप । उस रोज तुम्हारी चिट्ठी मिलने से उस रोज का मौसम, वो वक़्त मेरे ज़हन में छप चुका है और आज भी इस मूसलाधार बारिश में डाकिया और तुम्हारी चिट्ठी दोनों आए, डाकिया और बारिश दोनों तो जा चुके हैं अभी, और मैं लाइब्रेरी की भींगी हुई खिड़कियों और जंगलों पर लटके हुए इन बूंदों को देखकर यही सोचता हूं कि शायद इस भींगी खिड़कियों की तरह मेरा मन भी भींग जाए जैसे ही मैं तुम्हारी चिट्ठी खोलूं, इसलिए कहता हूं कि हर मौसम में तुम्हारा ख़त मिला मुझे या यूं कहूं कि तुम्हारे हर ख़त में एक मौसम मिला मुझे ।,,
सदानन्द कुमार
समस्तीपुर बिहार

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