पूस प्रवास भाग 09 और 10 || Short Stories in Hindi || Hindi Kahani || Desi Kahani

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पूस प्रवास भाग 09

सफरनामा

बीच सफर में अपने चोरी हो चुके सूटकेस से गूची जी का मन अब इतना विचलित हो चुका था कि अब गूची जी को समूचा संसार ही 420 बुझा रहा था, पर कहीं ना कहीं उनका मासूम दिल ये भी मानने को तैयार नहीं हो रहा था कि इतनी शांतचित्त मृगनयनी सुंदरी उसका सूटकेस उठाने जैसा तुच्छ काम करेगी, बात विचार और आभामंडल से तो वो किसी प्रेमनगर की प्रिसेंस लग रही थी।

अब प्रिंसेस सरीखी लड़कियां अगर ट्रेन के स्लीपर क्लास में नीरीह जनता के सूटकेस टपाने लगे तो ये बेचारे चोर उचक्के और जगत में विचरन कर रहे लफंडरों के सामने तो रोजगार की विकट समस्या उत्पन्न हो जाएगी ।

ऐसे ही कई ऊटपटांग विचारों में मुग्ध गूची जी ऐसे सुन्न से बैठे मालूम पड़ रहे थे मानों अपनी अंतरात्मा से अपने सूटकेस के मुक्ति का मार्ग पूछ रहे हों । गूची जी को इतने गंभीर चिंतन में गुम देख सहयात्रियों को ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी कि गूची जी को सूटकेस का बहुत गंभीर सदमा लगा है । सामने बैठे बुजुर्ग दंपति में से चाचा जी को तो गूची जी पर तनिक भी दया नहीं आई पर गूची जी को ऐसे मौन बैठे देख चाची के दिल में थोड़ी करूणा आई और ममत्व वश वह पूछ बैठी कि बेटा सूटकेस में कोई बहुत जरूरी चीजें थी क्या ? इससे पहले कि गूची जी हां या नहीं कहते चाचा जी बोल पड़े - " अरे ! अगर जरूरी चीजें नहीं होती तो ये अपने छाती पर लादकर उस सूटकेस को क्यूं लाता ? " यह सुनकर गूची जी ने निरूत्तर रहना ही ठीक समझा पर यह सवाल सुनकर गूची जी के मन में एक बात कौंधी कि सूटकेस में तो ऐसे कई जरूरी सामान थे पर एक दो फटेहाल बनियान और छेद युक्त कच्छे भी तो थे, भले ही उस सुंदरी ने चोरी के इरादे से सूटकेस उठाया था पर सूटकेस खोलते ही वो मेरे फटेहाली से अवगत हो जाएगी । ये सोचकर गूची जी के आंखों के सामने और भी अंधेरा छाने लगा। 

यूं तो संसार में यह बात व्याप्त है कि पुरुष का मन बड़ा ही कठोर होता है पर बात अगर किसी नवयौवना की हो तो गूची जी जैसे पुरुष बड़े उदार मन से उसके लिए अपना सूटकेस तो क्या अपनी जमीन जायदाद भी लूटा देते, ऐसे पुरुष नवयुवती के लिए हमेशा क्षमाशील बने रहते हैं, चाहें नवयुवतियां उनकी लंका ही क्यूं ना लगा दें पर इतने उदार हृदय से क्षमाशील बने रहने का कभी कभी कोई फायदा नहीं क्योंकि नए कल्चर के लोग इसे ठरकपन के रूप में परिभाषित कर देते हैं, खैर,, जो भी हो,,

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" पूस प्रवास भाग 10 "

वैसे तो सफ़र में लूट जाने का एहसास इतना भारी है कि इस पर कई तरह के मारक और दिल का दर्द बयां करते हुए कई तरह के शेरों शायरी व नगमें लिखें जा सकतें है पर चूंकि अपने गूची जी के लिए यह जीवन का पहला अनुभव था इसलिए वो फिलहाल बस मन ही मन उस मृगनयनी को उसकी बेवफ़ाई के लिए याद करते जा रहे थे, ध्यान दीजिएगा कि याद करते जा रहे थे कोस नहीं रहे थे, बल्कि कहीं न कहीं उनके मन में मृगनयनी को कोसने के बजाय अब हल्की हमदर्दी का भाव उभर आ रहा था कि हाय कितनी मजबूरी में रही होगी बेचारी जो ऐसा सुंदर रूप होते हुए बेचारी को चोरी जैसा तुच्छ काम करना पड़ रहा है ।

गूची जी के मन में तो अब ऐसे भाव आ रहे थे कि मानों यदि गूची जी को पहले से पता होता कि वो मृगनयनी उसका सूटकेस टपाने वाली है तो खुद गूची जी अपने जेब से निकालकर सूटकेस में कुछ रूपए रख देते, कम से कम बेचारी उस लड़की की कुछ मदद हो जाती और यदि सूटकेस खोलते ही उस मृगनयनी को कुछ रूपए मिल जाते तो गूची जी की कंगाली भी उजागर होने से बच जाती लेकिन हाय रे संजोग कि जिंदगी पहले से कुछ बताती नहीं ।

ऐसे ही कुछ महान विचारों में लीन गूची जी अपने सीटबर्थ पर किसी विशालकाय कछुए की भांति बिल्कुल शांत पड़े हुए थे, बगल की सीट पर सफ़र कर रहे बुजुर्ग दंपति में से चाची फिर बोल उठी- " बेटा, मन छोटा मत करो, सामने वाले स्टेशन पर उतर कर कम से कम एक शिकायत ही लिखवा देना, अब सूटकेस तो मिलने से रहा कम से कम एक कागज तो रहेगा तुम्हारे पास कि तुम्हारा सूटकेस चोरी हुआ है । क्या पता कहीं रेलवे वालों की तरफ से कुछ हर्जाना ही मिल जाए " चाची की बात सुनकर गूची जी की चेतना थोड़ी वापस आई, उन्होंने सोचा कि बात तो सही है आखिर उनका सूटकेस गायब होने का कुछ तो सबूत होना ही चाहिए और अगर कहीं रेलवे वालें दया धर्म दिखा गए तो उनको अपने छेद युक्त कच्छो का हर्जाना मिलेगा वो अलग ।

इतना सोचते ही आंखों में चमक लिए गूची जी उठने को हुए ही थे कि चाचा जी चाची से बोल पड़े - " हर्जाना ?? क्या बड़बड़ाती हो ? हर्जाना मिले ना मिले पर शिकायत लिखवाने के चक्कर में जो पैसे जेब में है वो भी रिश्र्वत के नाम पर निकल जाएंगे । "

ऐसा कटू सत्य सुनकर गूची जी फिर कछुआ हो गए, किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि सच तो कड़वा होता है ।

खैर, जैसे तैसे अपने दिल का दर्द लिए गूची जी का सफ़र और रेल दोनों धीरे धीरे अपने मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे थे । गुनगुने धूप में चल पड़ी रेल अब हाड़ कपकपा देने वाली ठंड कोहरे और रात के अंधेरे से होती हुई धीरे धीरे एक स्टेशन पर सुस्ताने को हुई, ट्रेन के स्टेशन पर रुकते ही बुजुर्ग चचा ने गूची जी को लगभग आदेशात्मक लहजे में साथ में एक कप चाय पी आने को कहा, शायद चचा भीतर ही भीतर गूची जी के मनोभावों को समझ रहे थे, आखिर किसी ज़माने में चचा भी दिल और दिमाग के इसी कैमिकल लोचे से गुज़रे होंगे । वैसे तो चचा को दिली इच्छा थी कि गूची उसके साथ नीचे चाय पीने आए ताकि चचा उसे अपने जवानी की नादानियों से अर्जित करे गए अनुभव और सीख बता सकें, चचा को ऐसा लगता था कि उनके द्वारा दिया गया ज्ञान गूची के दर्दे दिल की दवा बन सकता है क्योंकि इस ज्ञान की बात के मूल में यह तर्क था कि ख़ुबसूरत लड़कियां भोले भाले लड़कों को उल्लू बनाती ही हैं पर यह ज्ञान वो चाची के सामने गूची को नहीं दे सकते थे वरना चाची उनसे उनके जवानी के दिनों का हिसाब मांग बैठती । लाख टोनियाने के बाद भी गूची जी का मन नीचे जाने को नहीं हुआ और चचा को अकेले ही अपने ज्ञान की घुट्टी और चाय पीने नीचे उतरना पड़ा,,

क्रमशः,,,,

सदानन्द कुमार

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